" वो सच "
आज अखब़ार में पढ़ी एक घटना तुम्हारी याद दिला गयी,
पढ़कर दिल भर आया और तुम्हारा 'वह' झूठ समझ आने लगा !
तुम पर क्या बीता होगा उन् दिनों
अब सब कुछ समझ आने लगा
तुमने क्यों छुपाया होगा 'वह' सच, अपनी हंसी के पिछे
और क्यों हमारे सवालों पर चुप हो जाती थी तुम
झूठ बोलकर, कहानियाँ बनाकर, क्यों सवालों से बचती फिरती थी
क्यों अकेले में आँसू बहाकर फिर हमसे नज़रें चुराती थी
किस तरह घुटन में जीती होगी तुम
बंद दरवाज़े के पिछे रोती होगी तुम
मैं सोचती थी, क्यों मुझे बतलाती नहीं
चुपचाप रोकर कोई फ़ायदा भी तो नहीं
पर अब लगता है, अगर तब कह देती सब कुछ
तो शायद समझ नहीं पाती मैं तुमको
तुम्हे डांटती, चिल्लाती, तुमको ही दोषी ठहराती
सही-ग़लत का फैसला ख़ुद ही करती, और तुमको नीचा गिराती
तुम रोती, अपनी गलती मानती, कुछ लड़ती, किस्मत को गाली देती
मैं फ़िर तुम पर शक़ करती, तुम्हारे आँसुओं पर हँसती
कड़वाहट भरे शब्दों से तुमको कोसती, तुम्हे ख़ुद की नज़रों से गिराती
अच्छा हुआ तुमने मुझसे कुछ ना कहा, मैं तो तुम्हे समझ ही ना पाती
इतने दिनों बाद, जब तुम मेरी नज़रों में ग़लत
और वो बे-गैरत लड़के सही साबित हो चुके थे
अखब़ार में पढ़ी एक घटना तुम्हारी याद दिला गयी
और कई सारे अनकही बातों पर से पर्दा उठा गयी !!
Lovely flow and the feel in this poem~ Liked it nehu :) Write more and more :) Good luck
ReplyDeleteoi kahan sechori kiya....acha hai!!!
ReplyDeletebahut khoob, phir se dil ko chune wale shabadon ki mala bana di aapne. badhai
ReplyDeleteachchi kavita... ghumte huye yahan aa gaya... par achcha laga padhkar...
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